डंडारी लोकनृत्य : बस्तर की धरती का शौर्यगान

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डंडारी लोकनृत्य


डांडिया तो आपने देखा ही होगा, जहाँ रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे लोग साबुत डंडियों से ताल मिलाते हुए नाचते हैं। लेकिन क्या आपने कभी डंडारी नाचा के बारे में सुना है?


बस्तर की धरती, अपनी समृद्ध संस्कृति और विविधता के लिए जानी जाती है। इसी समृद्धि का एक अद्भुत नमूना है डंडारी नृत्य। यह नृत्य सिर्फ एक कला का प्रदर्शन नहीं, बल्कि बस्तर की जनजातियों की आस्था, साहस और जीवन के प्रति उत्साह का प्रतीक है।

डंडारी लोकनृत्य डंडारी नृत्य पूरे बस्तर जिले में दन्तेश्वरी माई के सम्मान में बसंत पंचमी से लेकर फागुन समाप्ति तक होता है। बस्तर जिले के भतरा जनजाति के समुदायों द्वारा विशेष रूप से बसंत पंचमी से फागुन मास के अंत तक मनाया जाता है। इसे फागुन नृत्य भी कहा जाता है। यह नृत्य, फसल की अच्छी उपज के लिए आभार प्रकट करने और प्रकृति की पूजा करने का एक तरीका है। इस नृत्य को पुरुष वर्ग के द्वारा किया जाता है तथा नृत्य में बाँस से बने डंडों का प्रयोग किया जाता है | इस नृत्य में नर्तकों के साथ वादक दल भी साथ में होता है 

डंडारी नृत्य का इतिहास और महत्व

  • योद्धा वर्ग से जुड़ाव: इस नृत्य में इस्तेमाल होने वाले डंडों और नृत्य की मुद्राओं से यह स्पष्ट होता है कि आदिवासी समुदाय कभी योद्धा वर्ग से संबंधित रहे होंगे।  इस नृत्य में प्रयुक्त होने वाले दण्ड संचालन तथा अभिनय की वही भाव भंगिमाएं होती हैं जो युद्ध भूमि में सैनिकों के द्वारा तलवार चलाने के समय होती है।

  • फसल की खुशी: डंडारी नृत्य, फसल की अच्छी उपज के आनंद का प्रतीक है। यह नृत्य किसानों के लिए एक तरह से उत्सव होता है।

  • आस्था और विश्वास: यह नृत्य, आदिवासी समुदाय के देवी-देवताओं, विशेषकर दन्तेश्वरी माई के प्रति आस्था का प्रतीक है।

  • सांस्कृतिक पहचान: डंडारी नृत्य, बस्तर की सांस्कृतिक पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह नृत्य, पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है और आदिवासी समुदाय की संस्कृति को जीवंत रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
 

🎺 डंडारी लोकनृत्य में प्रयुक्त वाद्य यंत्र 🎺

डंडारी लोकनृत्य, बस्तर की धरती का एक जीवंत और ऊर्जावान नृत्य है। इस नृत्य को और अधिक जीवंत बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों का उपयोग किया जाता है। ये वाद्य यंत्र न केवल नृत्य की ताल को बनाए रखते हैं बल्कि इसके भाव को भी गहरा करते हैं।

डंडारी लोकनृत्य में आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले कुछ प्रमुख वाद्य यंत्र हैं:

  • ढोल / ढोलक : यह एक घंटाकार ढोलक जैसा वाद्य यंत्र है। इसे दोनों हाथों से बजाया जाता है और यह नृत्य की मुख्य ताल प्रदान करता है।


  • थुडकुला / तुड़बुड़ी : यह एक छोटा, गोल आकार का ढोलक जैसा वाद्य यंत्र है। इसे कमर में बांधकर बजाया जाता है और यह नृत्य की गति को बढ़ाता है।

  • टिमटिमी: यह एक छोटा, धातु का वाद्य यंत्र है। इसे हिलाकर बजाया जाता है और यह नृत्य में एक खनखनाती आवाज पैदा करता है।

  • घुंघुरु: नर्तक अपने पैरों और कमर में घुंघुरु बांधते हैं। नृत्य करते समय घुंघुरों की आवाज एक मधुर संगीत पैदा करती है।

  • तिरली (बांसुरी) : इस नृत्य में नर्तकों के साथ एक विशिष्ट वादक दल भी होता है जिसमें 7- 8 लोग ढोल बजाते हैं और केवल एक व्यक्ति तिरली वादन करता है, जिसे बाँसुरी भी कहा जाता है । तिरली इस नृत्य की आत्मा होती है और इसके स्वरों को साधने के लिए पीढ़ियों से चली आ रही विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। तिरली वादक अपनी कला को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते हैं और इस प्रकार डँडारी लोक नृत्य की यह अनूठी परंपरा जीवित रहती है। तिरली से निकलती मधुर स्वर लहरियाँ ही इस नृत्य को विशिष्ट पहचान दिलाती हैं और दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देती हैं।

डंडारी लोकनृत्य


  • बांस की खपच्चियाँ (तिमि वेदरी) -  डंडारी लोकनृत्य में डंडियों की जगह बांस की खपच्चियों का इस्तेमाल होता है। इन खपच्चियों को बनाने के लिए खास किस्म के पतले बांस का इस्तेमाल किया जाता है, जिनके बाहर की तरफ चीरे लगाए जाते हैं। इस नृत्य में बांस की खपचियों से एक दुसरे से टकराकर ढोलक एवं तिरली के साथ जुगलबंदी कर नृत्य किया जाता है। जब ये खपच्चियां आपस में टकराती हैं, तो एक अलग ही तरह की लय और ताल पैदा होती है, जो बांसुरी और ढोल की धुन के साथ मिलकर एक जादुई संगीत रचती है। स्थानीय धुरवा बोली में इन बांस की खपच्चियों को "तिमि वेदरी" कहते हैं । कहीं कही बांस की खपचियों के जगह बारहसिंगा के सींगो का भी उपयोग किया जाता रहा है।


डंडारी लोकनृत्य



  • सीटी का इस्तेमाल - इस नृत्य का एक और रोचक पहलू है सीटी का इस्तेमाल। नृत्य के दौरान, एक नर्तक मुंह में सीटी दबाकर अलग-अलग संकेत देता है, और दल उसी के हिसाब से फुर्ती से अपने स्टेप बदल लेता है। कलाकारों के अनुसार, डंडारी नाचा में "छोलिया डंडारा", "मकोड़ झूलनी", "कुकुर मूतनी", "सात पड़ेर", "छ: पड़ेर" जैसी 5 मुख्य धुनें होती हैं, और हर धुन का अपना अलग स्टेप होता है। जब इस नृत्य में महिलाएं भी शामिल होती हैं, तो "बिरली नाचा" की मोहक धुन बजाई जाती है, जो और भी रंगत और रौनक बिखेर देती है।



तो अगली बार जब आप छत्तीसगढ़ के बस्तर जाएँ, तो इस आदिवासी समुदाय का डंडारी नाचा ज़रूर देखें और बांस की खपच्चियों और सीटियों से सजी इस अनोखी संगीत परंपरा का आनंद लें।



विशेष नोट :- इस लेख में प्रयुक्त चित्र, इतिहास के प्रोफेसर, भाई ओम सोनी जी के स्वयं के चित्र एवं इन्टरनेट सोर्स के माध्यम से प्राप्त किये गए हैं 


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